बैलफोर घोषणा 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में ब्रिटिश कूटनीति का एक ऐसा कदम था, जिसने यहूदी राष्ट्रवाद और अरब-यहूदी संबंधों को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। 2 नवम्बर, 1917 को ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री लॉर्ड आर्थर जेम्स बैलफोर द्वारा लिखे गए इस पत्र ने औपचारिक रूप से यहूदियों के लिए फिलिस्तीन में एक राष्ट्रीय गृहस्थली के समर्थन की घोषणा की। यह दस्तावेज, हालांकि केवल 67 शब्दों का था, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव अत्यधिक जटिल और बहुआयामी थे। इसके प्रभाव ने न केवल मध्य पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया, बल्कि आने वाले दशकों में वैश्विक राजनीति पर भी असर डाला।
बैलफोर घोषणा का ऐतिहासिक संदर्भ:
19वीं सदी के उत्तरार्ध में यहूदी राष्ट्रवाद (Zionism) का उदय हुआ। थियोडोर हर्ट्ज़ल के नेतृत्व में यहूदी समुदाय ने यूरोप में फैले यहूदी-विरोधी (Anti-Semitic) घटनाओं के कारण एक स्वतंत्र यहूदी राज्य की मांग शुरू की। यह आंदोलन इस विचार पर आधारित था कि यहूदी लोगों को अपनी धार्मिक और ऐतिहासिक भूमि, फिलिस्तीन में एक राष्ट्रीय घर की आवश्यकता है।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान, ब्रिटिश साम्राज्य के रणनीतिक लक्ष्यों में मध्य पूर्व में अपनी स्थिति को मजबूत करना शामिल था। तुर्क साम्राज्य, जो फिलिस्तीन पर शासन करता था, ब्रिटेन का शत्रु था। ब्रिटेन ने इस क्षेत्र में अपने नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न कदम उठाए। बैलफोर घोषणा इन्हीं कूटनीतिक रणनीतियों का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य यहूदी समुदाय का समर्थन प्राप्त करना था ताकि उन्हें युद्ध के समय संसाधन और समर्थन मिल सके।
बैलफोर घोषणा का वास्तविक पाठ:
बैलफोर घोषणा का पाठ निम्नलिखित है:
“His Majesty’s Government view with favour the establishment in Palestine of a national home for the Jewish people, and will use their best endeavours to facilitate the achievement of this object, it being clearly understood that nothing shall be done which may prejudice the civil and religious rights of existing non-Jewish communities in Palestine, or the rights and political status enjoyed by Jews in any other country.”
घोषणा के प्रमुख उद्देश्य और जिम्मेदारियाँ:
बैलफोर घोषणा के पीछे ब्रिटिश सरकार की कूटनीतिक और राजनीतिक जिम्मेदारियाँ निहित थीं:
- यहूदी समर्थन प्राप्त करना: ब्रिटेन को उम्मीद थी कि यह घोषणा वैश्विक यहूदी समुदाय, विशेष रूप से अमेरिकी यहूदियों का समर्थन जुटाने में मदद करेगी। प्रथम विश्व युद्ध के उस दौर में, ब्रिटेन की यह रणनीति यहूदी समर्थन के माध्यम से अपने युद्ध प्रयासों को मजबूत करना था।
- मध्य पूर्व पर पकड़: ब्रिटेन ने घोषणा के जरिए फिलिस्तीन क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करने की भी योजना बनाई। तुर्क साम्राज्य के पतन के बाद, ब्रिटेन के लिए यह महत्वपूर्ण था कि वह इस क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत रखे।
यहूदी समुदाय की प्रतिक्रिया:
बैलफोर घोषणा को यहूदी समुदाय में स्वागत और उत्साह के साथ देखा गया। कई यहूदियों ने इसे अपने राष्ट्रवादी उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में एक बड़ा कदम माना। हालांकि, सभी यहूदी संगठन इससे सहमत नहीं थे। कुछ यहूदी नेताओं ने इस कदम को अव्यवहारिक और विवादास्पद माना, क्योंकि यह क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा सकता था।
अरब समुदाय की प्रतिक्रिया:
अरब समुदाय के लिए, बैलफोर घोषणा का स्वागत करना कठिन था। फिलिस्तीन क्षेत्र में पहले से ही एक प्रमुख अरब जनसंख्या निवास करती थी, जो घोषणा के संभावित परिणामों से अनभिज्ञ नहीं थी। उन्होंने इसे एक ब्रिटिश विश्वासघात के रूप में देखा, क्योंकि मैकमोहन-हुसैन पत्राचार (1915-1916) में ब्रिटेन ने अरबों को स्वतंत्रता का वादा किया था। इसने अरब समुदाय में ब्रिटेन के प्रति गहरी नाराजगी और संदेह पैदा किया।
घोषणा के प्रभाव और परिणाम:
- ब्रिटिश मण्डेट और लीग ऑफ नेशन्स का हस्तक्षेप: 1920 के सैन रेमो सम्मेलन के बाद, लीग ऑफ नेशन्स ने औपचारिक रूप से बैलफोर घोषणा को स्वीकार कर लिया। 1922 में, लीग ने ब्रिटेन को फिलिस्तीन पर शासन करने का मण्डेट दिया। यह मण्डेट यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय गृहस्थली की स्थापना के ब्रिटिश वादे को लागू करने के लिए था।
- अरब-यहूदी संघर्ष: बैलफोर घोषणा ने अरब और यहूदी समुदायों के बीच तनाव और संघर्ष को जन्म दिया। 1920 और 1930 के दशक में, फिलिस्तीन में यहूदी आप्रवास बढ़ने के कारण अरब समुदाय ने इस पर विरोध जताया। इसने कई हिंसक झड़पों और विद्रोहों को जन्म दिया, जैसे कि 1929 के दंगे और 1936-1939 के अरब विद्रोह।
घोषणा की आलोचना:
- अस्पष्टता और विरोधाभास: बैलफोर घोषणा में प्रयुक्त भाषा अस्पष्ट थी। “national home” शब्द का सही अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया था, जिससे यहूदियों और अरबों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ। इसके अलावा, घोषणा में यह भी कहा गया था कि यहूदी गृहस्थली की स्थापना करते समय फिलिस्तीन के गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों का सम्मान किया जाएगा, लेकिन व्यवहार में यह असंभव साबित हुआ।
- ब्रिटिश दोहरी नीति: ब्रिटिश नीति की आलोचना इस आधार पर भी की गई कि उसने एक ओर बैलफोर घोषणा के माध्यम से यहूदी गृहस्थली का वादा किया, और दूसरी ओर अरबों से किए गए वादे के अनुसार स्वतंत्रता की उम्मीद जगाई। इससे ब्रिटेन की मंशा पर संदेह उत्पन्न हुआ और यह माना गया कि ब्रिटेन ने अपनी राजनीतिक और सामरिक महत्वाकांक्षाओं के लिए दोनों पक्षों के साथ छल किया।
अंतरराष्ट्रीय प्रभाव:
बैलफोर घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दृष्टिकोण को भी प्रभावित किया। यह दस्तावेज अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों के लिए एक संदर्भ बिंदु बन गया, जिससे उन्होंने अपनी मध्य पूर्व नीतियों का निर्माण किया। इजराइल के गठन (1948) के बाद, इस घोषणा को यहूदी राज्य की स्थापना के एक कानूनी और ऐतिहासिक आधार के रूप में प्रस्तुत किया गया।
लंबे समय तक चलने वाले परिणाम:
बैलफोर घोषणा का प्रभाव आज भी मध्य पूर्व में देखा जा सकता है। यह घोषणा अरब-इजराइल संघर्ष की नींव के रूप में जानी जाती है, जिसने दशकों तक हिंसा और युद्ध को जन्म दिया। 1948 में इजराइल की स्थापना के समय, अरब राष्ट्रों और फिलिस्तीनियों ने इसे अपने अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा और परिणामस्वरूप अरब-इजराइल युद्ध हुआ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य:
वर्तमान समय में, बैलफोर घोषणा को इतिहासकार और राजनयिक एक मिश्रित दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ इसे एक ऐतिहासिक उपलब्धि मानते हैं जिसने यहूदियों के लिए एक सुरक्षित राष्ट्र की नींव रखी, जबकि अन्य इसे मध्य पूर्व में अशांति और संघर्ष का मुख्य कारण मानते हैं। यह घटना यह बताती है कि किस प्रकार एक छोटा राजनीतिक कदम व्यापक और दीर्घकालिक वैश्विक प्रभाव डाल सकता है।
निष्कर्ष:
बैलफोर घोषणा एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसने अंतरराष्ट्रीय राजनीति, समाज और संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ी। यह घटना ब्रिटिश साम्राज्यवाद, प्रथम विश्व युद्ध के बाद के प्रभावों और मध्य पूर्व की राजनीति की जटिलताओं को समझने में सहायता करती है। UPSC जैसे प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए, बैलफोर घोषणा का अध्ययन केवल ऐतिहासिक महत्व के कारण नहीं, बल्कि इसके आधुनिक और समकालीन परिणामों को समझने के लिए भी आवश्यक है। यह एक प्रमुख उदाहरण है कि कैसे एक कूटनीतिक निर्णय संघर्ष और स्थायित्व के प्रश्न को जन्म दे सकता है।
इसका गहन अध्ययन छात्रों को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और विवादों की जटिलताओं को समझने और उसकी विवेचना करने में मदद करेगा।
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