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STROMATOLITES FOSSILS: EARLIEST LIFE ON EARTH:-
एक और जहाँ मार्स रोवर दूसरे ग्रह पर जीवन की तलाश में है। वही दूसरी और वैज्ञानिको ने बताया है कि वायरस ने स्ट्रोमेटोलाइट बनाने में अहम भूमिका निभाई है। स्ट्रोमेटोलाइट हमारे ग्रह पर उपस्थित सबसे पुराने जीवन का एक रूप है। यह सुनने में बहुत दुःख होता है कि किसी वायरस के कारण मानव जाति विनाश झेल रही है। इसके विपरीत यही वायरस न होते तो इस धरती पर शायद जीवन संभव ही ना होता। लाखो वर्ष पुरानी इन जीवित चट्टानों के अध्ययन से तो यही पता चलता है।
खोज के मुख्य बिन्दु:-
UNSW सिडनी और अमेरिका के विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने सबसे पुराने जीवन रूप के बारे में पता लगाया है जिन्हे स्ट्रोमेटोलाइट कहा जाता है। यह जीवन रूप चूने की चट्टानों की परतो के रूप में उथले पानी में सभी जगह पाई जाती है। वैज्ञानिक उस तंत्र के बारे में जानने की कोशिश कर रहे है जो इन एकल कोशिकीय जीवो की चट्टान रूप संरचना बनाने में सक्षम है।
ऐसा माना जा रहा है कि वायरस ही इस पहेली को सुलझाने में महत्वपूर्ण कड़ी है। ये स्ट्रोमेटोलाइट मुख्यतया शार्क बे और पिलबारा, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में बहुतायत में पाये जाते है। UNSW के ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर एस्ट्रोबायोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर ब्रेंडन बर्न्स का कहना है कि स्ट्रोमेटोलाइट सबसे पुराने ज्ञात माइक्रोबियल पारिस्थितिकी तंत्र में से एक हैं, जो लगभग 3.7 बिलियन साल पुराना है।
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स्ट्रोमेटोलाइट बनने का कारण:-
माइक्रोबियल मैट मुख्यतया साइनोबैक्टीरिया के द्धारा निर्मित है। यह साइनोबैक्टीरिया प्रकश संश्लेषण का काम करते है और प्रकाश को ऊर्जा में परिवर्तित करते है। इन्होने इतनी अधिक ऑक्सीजन का उत्पादन किया है कि पृथ्वी पर वायुमंडल बदला है और जटिल जीवन जीने योग्य हुआ है।
मुख्यतया बर्न्स और उनके सहयोगियों माइक्रोबियल मैट्स के स्ट्रोमेटोलाइट्स में बदलने की प्रक्रिया को समझना चाहते है। उनका कहना है कि इनके बारे में जानकरी जुटाने से हमें धरती पर जीवन के बारे में तो पता चलेगा ही साथ ही दूसरे ग्रहों पर जीवन के बारे में भी जानकरी मिलेगी। अगर हम स्ट्रोमेटोलाइट के गठन के तंत्र को समझ जाते है तो हमारे पास जटिल जीवन के विकास पर इन पारिस्थितिक तंत्रों के प्रभाव को समझने में आसानी होगी।
इस ज्ञान से हमें जैव विज्ञान की बेहतर व्याख्या करने में मदद मिल सकती है। जिसे हम रासायनिक या आणविक जीवाश्म कह सकते हैं। ये जीवाश्म अरबों साल पहले के शुरुआती जीवन की गतिविधियों का सुराग प्रदान करते हैं।इतना ही नहीं यह अन्य ग्रहों पर जीवन की तलाश करने में हमारी मदद करने की क्षमता भी रखता है। माइक्रोबियल मैट्स का नरम कोशिकाओं से सख्त चट्टान में बदलना वायरस के साथ से ही संभव है।
खोज में भविष्य की सम्भावनाये:-
वैज्ञानिको को ऐसा अनुमान है कि वायरस का माइक्रोबियल चयापचय पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव जरूर है। इसी प्रभाव के कारण माइक्रोबियल मैट्स स्ट्रोमेटोलाइट्स में परिवर्तित हो जाते है। वायरस का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप में देखा जाये तो, वायरस साइनोबैक्टीरिया के नाभिक में प्रवेश करता होगा और उसके चयापचय को प्रभावित करता होगा। इसके बाद वह ऐसे जीन को या तो हटाता होगा या जोड़ता होगा जिससे दोनों जीवो का अस्तित्व बना रहता होगा।
उपर्युक्त प्रक्रिया के द्धारा ही माइक्रोबियल मैट के अस्तित्व को बढ़ावा मिलता है और माइक्रोबियल मैट्स से कार्बोनेट लेयर बनने की प्रक्रिया सम्पादित होती है।
दूसरी और अप्रत्यक्ष परिदृश्य में देखा जाये तो वायरस जीवित कौशिका के अंदर घुसकर कौशिका झिल्ली को नष्ट कर देता होगा। इस प्रक्रिया से कौशिका के अंदर का द्रव्य बाहर आ जाता होगा और मैट्स की संरचना का निर्माण होता होगा।
वैज्ञानिको को लगता है की वायरस विघटन किसी ऐसी सामग्री को छोड़ता है जो जीवों के चयापचय को बढ़ावा देता है जिसके परिणामस्वरूप खनिज प्राप्त होते है और अंततः स्ट्रोमेटोलाईट का गठन होता है।
इन दोनों में से एक प्रभाव की उपस्तिथि और उसे समझने की आवश्यकता है।
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लेख में काम में आने वाले महत्वपूर्ण शब्द:-
UNSW SYDNEY:-
न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के नाम से जाता जाता है। एक ऑस्ट्रेलियाई सार्वजनिक अनुसंधान विश्वविद्यालय है जो केंसिंग्टन के सिडनी में स्थित है। इसकी स्थापना 1949 में हुई थी। UNSW एक प्रतिष्ठित ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय है जो 2021 QS वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में दुनिया में 44 वें स्थान पर था।
CYANOBACTERIA:-
इसे नील हरित शैवाल के नाम से भी जाना जाता है। यह एकल कौशिकीय समूह में रहने वाले जीव है। साथ ही ये प्रकाश संश्लेषण करने में भी सक्षम है। यह यूकेरियोटिक शैवाल से कई मायनो में मिलता जुलता है जिनमें रूपात्मक विशेषताएं और पारिस्थितिक परिस्थितियाँ शामिल है। सायनोबैक्टीरिया को भी एक समय पर शैवाल ही माना जाता था। यही कारण है की इसका नाम नील-हरित शैवाल भी है।
बाद में शैवाल को प्रोटिस्ट के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया गया है, और नीले-हरे शैवाल के प्रोकैरियोटिक प्रकृति के कारण उन्हें प्रोकैरियोटिक साम्राज्य मोनेरा में बैक्टीरिया के साथ वर्गीकृत किया गया। अन्य सभी प्रोकैरियोट्स की तरह, सायनोबैक्टीरिया में एक झिल्ली-बाध्य नाभिक, माइटोकॉन्ड्रिया, गॉल्जी तंत्र, क्लोरोप्लास्ट और एंडोप्लाज़मिक रेटिकुलम की कमी होती है। इन सभी झिल्ली बंद अंगो के द्धारा प्रोकैरियोट्स में किये जाने वाले काम यूकेरियोट्स में कौशिका झिल्ली के द्धारा की जाती है।
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कुछ साइनोबैक्टीरिया, विशेष रूप से प्लवक के रूपों में, गैस पुटिका होते हैं जो इनके आधिक्य में सहायक है।सायनोबैक्टीरिया एककोशिकीय या फिलामेंटस हो सकता है। कई में कॉलोनियों में अन्य कोशिकाओं या फिलामेंट्स को बांधने के लिए शीट्स हैं।
METABOLISM:-
मेटाबॉलिज्म एक ऐसा शब्द है, जो कोशिकाओं और जीव की जीवित अवस्था को बनाए रखने में शामिल सभी रासायनिक प्रतिक्रियाओं का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है। चयापचय को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है –
अपचय – ऊर्जा प्राप्त करने के लिए अणुओं का टूटना
उपचय – कोशिकाओं द्धारा आवश्यक सभी यौगिकों का संश्लेषण करना
ऊर्जा का निर्माण चयापचय के महत्वपूर्ण घटकों में से एक है।
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Reference: “Between a Rock and a Soft Place: The Role of Viruses in Lithification of Modern Microbial Mats” by Richard Allen White III, Pieter T. Visscher and Brendan P. Burns, 9 July 2020, Trends in Microbiology.
DOI: 10.1016/j.tim.2020.06.004